धर्म के नाम पर हो रहा व्यापार, गुरु शिष्य में लगी भगवान बनने की होड़

गुरु

सतपाल महाराज


शिष्य

किसी को उपदेश देना एक पवित्र कार्य है । उसमें भी धर्मोंपदेश देना तो बहुत ही पवित्र कार्य है । समाज को ज्ञानमय-भगवन्मय उपदेश देना तो जीवन का उद्देश्यमूलक सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम और परम पवित्र कार्य है । किसी को भी किसी भी कार्य को करते समय कम से कम इतनी सावधानी तो अवश्य ही बरतनी चाहिए कि इस उपदेश या कार्य से किसी को भी किसी भी प्रकार की कोई क्षति या हानि न हो । इतनी जिम्मेदारी तो हर किसी उपदेशक या कार्यकर्ता को अपने ऊपर लेना ही चाहिए कि मेरे उपदेश या कार्य से किसी का भला-कल्याण हो या न हो मगर क्षति या हानि तो न ही हो । भला-कल्याण करना ही धर्मोपदेशक का एकमेव एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये--होना ही चाहिए । किसी भी विषय-वस्तु का उपदेशक बनने-होने के पहले सर्वप्रथम यह बात जान लेना अनिवार्यत: आवश्यक होता है कि उस विषय-वस्तु का परिपक्व सैध्दान्तिक-प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी स्पष्टत:-- परिपूर्णत: हो। धर्मोपदेशक के लिए तो यह और ही अनिवार्य होता है मगर आजकल ऐसा है नहीं । धर्मोपदेश जैसे पवित्रतम् विधान को भी आजकल धन उगाहने का एक धन्धा बना लिया गया है जिससे धर्म की मर्यादा भी क्षीण होने लगती है, होने लगी भी है ।

धर्मोंपदेशक अथवा गुरु बनना--सद्गुरु बनना आज-कल एक शौक-धन्धा, बिना श्रम का मान-सम्मान सहित प्रचुर मात्रा में धन-जन को एकत्रित करना हो गया है । भले ही परमेश्वर और ईश्वर तो परमेश्वर और ईश्वर है, जीव की भी वास्तविक जानकारी न हो । अब आप सब स्वयं सोचें कि ऐसे गुरुजन सद्गुरुजन-धर्मोपदेशक बन्धुजन क्या धर्मोपदेश देंगे ? ऐसे धर्मोपदेशकों के धर्मोपदेश से कैसा दिशा निर्देश और मार्गदर्शन होगा ? समाज में इतना भ्रम फैलेगा कि हर कोई मंजिल के तरफ जाने के बजाय प्रतिकूल दिशा में जाने लगेगा, जिसका दुष्पिरिणाम यह होगा कि भगवान् और मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के आकर्षण के बजाय हर कोई माया और भोग में आकर्षित होता हुआ मार्ग-भ्रष्ट हो ही जायेगा। समाज में भगवान् के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण होने लगता है और भगवद् भक्ति-सेवा के बजाय मनमाना नाना प्रकार के विकृतियों का शिकार हो जाया करते हैं । वर्तमान में ऐसे ही होने भी लगा है। चारों तरफ देखें।

आजकल के गुरुजनों की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गयी है । समाज कल्याण तो अपने मिथ्यामहत्तवाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक प्रकार का मुखौटा मात्र बनकर रह गया हैं । मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारमय बना रहना और चाहे जिस किसी भी प्रकार से हो, धन-जन-आश्रम बढ़ाना मात्र ही धर्म रह गया है । दूसरे को उपदेश तो खूब दे रहे हैं मगर अपने पर थोड़ा भी लागू नहीं कर पा रहे हैं ।

ऐसे ही तथाकथित गुरुजनों की भीड़ में प्रमुख नाम हैं सतपाल महाराज और उनके भूतपूर्व शिष्य महेश कुमार उर्फ वेद प्रवक्तानन्द उर्फ आशुतोष महाराज (दिव्य ज्योति जागृति संस्थान वालों) का। इन दोनों ही तथाकथित गुरुजनों के ज्ञान की वास्तविकता को जानने से पहले हम दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के संस्थापक आशुतोष महाराज के उस रहस्य से आपको अवगत करवाना आवश्यक समझते हैं जिसके बारे में उनके शिष्य समाज को पता ही नहीं है। क्योंकि शिष्य समाज से एक बहुत बड़ा झूठ बोला गया है कि "आशुतोष महाराज हिमालय पर तपस्या करने गए थे और वहाँ एक दिव्य पुरुष ने प्रकट होकर उन्हे ब्रह्मज्ञान दिया फिर वह दिव्य पुरुष अदृश हो गया और आज वही ब्रह्मज्ञान आशुतोष जी अपने शिष्यों को दे रहे हैं !"

जबकि वास्तविकता तो यह है कि आशुतोष महाराज उर्फ महेश कुमार, सतपाल जी के शिष्य थे (इस बात का प्रमाण देखने के लिए यहाँ क्लिक करें) और सतपाल जी से ज्ञान लेने के बाद आज वही ज्ञान, ब्रह्मज्ञान के नाम से अपने शिष्यों को दे रहे हैं।

आइये अब देखते हैं कि क्या है वह ज्ञान जिसके नाम पर ये दोनों तथाकथित गुरुजन जनमानस को भ्रमित कर रहे हैं –
1. सोsहं (अजपा जाप)
2. ध्यान-मुद्रा (ज्योति दर्शन)
3. अनहद्-नाद
4. अमृत-पान (खेचरी मुद्रा)

(सतपाल जी तथा आशुतोष जी के उपरोक्त ज्ञान की वास्तविक विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें)

अध्यात्म के अन्तर्गत आने वाली उपर्युक्त चारों क्रियाओं की जानकारी देकर, इसे ही तत्त्वज्ञान कह देना, क्या भगवद् खोजी बन्धुओं के साथ धोखा नहीं है ? क्या यह भगवद् भक्तों के धर्म भाव का शोषण नहीं है? परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के अनुसार यथार्थतः तो यह है कि-

  • अध्यात्म आत्मा प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान परमात्मा प्रधान।
  • अध्यात्म ब्रम्ह प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान परमब्रम्ह प्रधान।
  • अध्यात्म र्इश्वर प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान परमेश्वर प्रधान।
  • अध्यात्म आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति या ब्रम्ह ज्योति, आलिमे नूर या डिवाइन लाइट या चांदना या स्वयं ज्योति या सहज प्रकाश या भर्गो ज्योति आदि प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) शब्द ब्रम्ह रूप अलम् (आलिफ् लाम् मिम्) रूप गॉड रूप ‘वर्ड’ या ‘बचन’ रूप सत्य प्रधान।
  • अध्यात्म- आसन-प्रत्याहार-प्राणायाम-ध्यान प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान यम एवं धारणा प्रधान।
  • अध्यात्म शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द प्रधान है तो तत्त्वज्ञान परमशान्ति अथवा शाश्वत शान्ति और परमानन्दरूप सचिचदानन्द के साथ ही साथ मुक्ति और अमरता प्रधान।
  • अध्यात्म चेतना प्रधान है तो तत्त्वज्ञान- जड़-चेतन दोनों का ही उत्पत्तिकर्ता-संचालन कर्ता एवं विलय रूप संहार कर्ता रूप कर्ता प्रधान।
  • अध्यात्म अनुभूति प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान बोध प्रधान।
  • अध्यात्म स्वत: किये जाने वाला क्रिया प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान भगवान द्वारा कराया गया बोध प्रधान।
  • अध्यात्म दिव्य दृष्टि प्रधान होता है जबकि तत्त्वज्ञान ज्ञान-दृष्टि या ज्ञान चक्षु या तत्त्व दृष्टि या सम्यक दृष्टि या बोध दृष्टि प्रधान।
  • अध्यात्म तीसरी दृष्टि (शंकर वाली) प्रधान है तो तत्त्वज्ञान चौथी दृष्टि (श्री विष्णु जी, श्री रामचन्द्र जी, श्री कृष्णचन्द्र जी वाला) प्रधान।
  • अध्यात्म शरीरान्तर्गत हृदयगुफा रूप आज्ञा चक्र प्रधान है तो तत्त्वज्ञान दिव्य आकाश रूप परमधाम या अमरलोक या मुक्ति पद प्रधान होता है ।
  • आध्यात्मिक गुरु जी लोग अनेकों की संख्या में धरती पर हर समय रहते हैं जबकि तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु एक युग में एक बार ही धरती पर अवतरित होता है।

दिव्य-ज्योति रूप शिव ही परमात्मा नहीं, अध्यात्म ही तत्त्वज्ञान नहीं
(देखें सद्ग्रंथीय प्रमाण)

ब्रह्म ज्ञान ही आत्मा ज्ञान नहीं । आत्मा ज्ञान ही तत्त्वज्ञान नहीं बल्कि तीनों अलग-अलग पद्धति जानकारी है।

शास्त्रों आदि सद्ग्रन्थों के माध्यम से जीव-आत्मा-परमात्मा अथवा जीव-ब्रह्म-परमब्रह्म अथवा जीव-ईश्वर-परमेश्वर अथवा रूह-नूर-अल्लाहतऽला अथवा सेल्फ-सोल-गॉड के सम्बन्ध में उत्कट एवं अनुमान परक जानकारी एवं समझदारी तो ब्रह्म ज्ञान है यानी ब्रह्म ज्ञान कहलायेगा । तथा योग-साधना या अध्यात्म के क्रिया-प्रक्रिया (अजपा-जप एवं ध्यान) आदि द्वारा अनुभूति परक जीव-आत्मा अथवा जीव-ब्रह्म अथवा जीव-ईश्वर अथवा रूह-नूर है । अथवा सेल्फ-सोल आदि का दरश-परश के साथ आपसी के एक-दूसरे से मिलने में होने वाली जानकारी आत्मा ज्ञान है या आत्मा ज्ञान कहलायेगा और परम्तत्त्वं रूप आत्मतत्तवम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वं रूप परमब्रह्म या परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी शरीर द्वारा तत्त्वज्ञान पध्दति के माध्यम से सत्य-स्पष्ट एवं यथार्थ जानकारी अनुभूति एवं बोध के साथ ही जीव-आत्मा-परमात्मा अथवा रूह-नूर-अल्लाहतऽला अथवा सेल्फ-सोल-गॉड की परिपूर्ण सैद्धान्तिक-प्रायौगिक एवं व्यवहारिक जानकारी ही तत्त्वज्ञान कहलायेगा ।

बन्धुओं! वर्तमान में इन दोनों गुरु और शिष्य (सतपाल महाराज और आशुतोष महाराज) में भगवान बनने की होड़ लगी हुई है। दोनों ही अपने भक्तों-अनुयायियों को यह बताते हैं कि पूर्णज्ञान देने वाला सच्चा गुरु एक समय में एक ही होता है, दो भी नहीं हो सकते।

फिर ये दोनों ही लोग सद्गुरु या भगवान कैसे हो गए? केवल ये दोनों गुरु जी लोग ही नहीं बल्कि वर्तमान में इनके अतिरिक्त अन्य गुरु जी लोग जैसे श्री बालयोगेश्वर जी, श्री आनन्दपुर साहब वाले आदि भी अध्यात्म की उपरोक्त चार क्रियाओं वाला ज्ञान देकर इसे ही तत्त्वज्ञान कहने तथा स्वयं को ही सच्चा सद्गुरु कहने में लगे हुये हैं। आप लोग जरा एक बार निष्पक्ष भाव से विचार कीजिये की जब पूरे सतयुग में श्री विष्णु जी, पूरे त्रेता में श्री राम जी और पूरे द्वापर में श्री कृष्ण जी ही एक मात्र भगवान के पूर्णावतार थे तो फिर वर्तमान में एक साथ इतनी संख्या में भगवान के पूर्णावतार धरती पर कैसे हो गए ?

सत्यान्वेषी बंधुओं ! किसी भी गुरु के पास जाते समय निम्नलिखित प्रश्नों पर अच्छी तरह से विचार अवश्य करें क्योंकि यह आपके मानव जीवन का प्रश्न है –

  • क्या कोई भी गुरु अपने शिष्य को जीव एवं आत्मा और परमात्मा तीनों का बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन करा सकता है ?
  • क्या कोई गुरु अपने शिष्य को भगवान श्री कृष्ण जी, श्री राम जी का तात्विक विराट स्वरूप का दर्शन करवा सकता है
  • क्या कोई गुरु अपने शिष्य को भव सागर से निकालकर तत्काल मुक्ति-अमरता का बोध करा सकता है?
  • क्या कोई भी गुरु अपने शिष्य को जीवन का पुरुषार्थ पूर्ति-कीर्ति- मुक्ति दे सकता है ?
  • क्या कोई भी गुरु अपने ज्ञान में ॐ और सोsहँ की उत्पत्ति तथा लय सहित ज्योतिर्मय स: की उत्पत्ति और विलय भी परमतत्त्वम् में ही साक्षात् बोध सहित देखने दीदार कराने की चुनौती देता है ?
  • क्या कोई भी गुरु श्वाँस के साथ प्रवेश होने वाली स: शक्ति कहाँ से आकर शरीर में प्रवेश कर अहं बनते हुए वह नि:श्वाँस कहाँ जाता है उसका रहस्य जना-दिखा सकता है
  • क्या कोई भी गुरु बिना दान-चन्दा-भेट-चढावा के अपने आश्रमों को चला रहा है रसीद पर्ची काटे बिना या दान पेटी रखे बिना ?
  • क्या कोई भी गुरु अपने शिष्य को सम्पूर्ण सृष्टि-ब्रह्मांडों का उत्पत्ति-स्थिति-लय-विलय का रहस्य जना-दिखा सकता है ?
  • क्या कोई भी गुरु सभी के ज्ञान को आधा-अधूरा प्रमाणित करके अपने 'तत्त्वज्ञान 'खुदार्इ इल्म सम्पूर्णत्त्व परमसत्यता और सर्वोच्चता के जाँच हेतु पूरे विश्व में खुली चुनौती दे सकता है ?
  • क्या कोई भी गुरु अद्वैत्तत्त्व एकत्त्व का बोध कराकर परमतत्त्वम् में अहं का विलय करा सकता है ?

विश्व बन्धुत्त्व एवं सद्भावी एकता आन्दोलन अन्तर्गत 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस की पूरे विश्व को यह चुनौती रही है कि –

"मैं तत्त्वज्ञान द्वारा जीव, ईश्वर तथा परमेश्वर तीनों का पृथक-पृथक बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन तथा जीते जी मुक्ति अमरता का साक्षात् बोध करवाता हूँ । पूरे भूमण्डल पर यदि कोई भी मेरे द्वारा प्रदत्त तत्त्वज्ञान को गलत प्रमाणित कर देता है तो मैं अपने सकल भक्त-सेवक समाज सहित उसके प्रति समर्पित हो जाऊँगा और यदि वह गलत प्रमाणित न कर सका तो उसे भी मेरे प्रति समर्पित होना ही होगा। इसके अतिरिक्त पूरे भूमण्डल पर यदि अन्य कोई भी यह कहता हो कि उसके पास तत्त्वज्ञान है तो मैं सद्ग्रंथीय एवं प्रयौगिक आधार पर उसे गलत प्रमाणित करने के लिए तैयार हू।"

परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस जी के परमधाम गमन करने के 7 वर्ष बाद भी उपरोक्त चुनौती यथावत कायम है।
उपरोक्त चुनौती यथावत कायम है उनके शिष्यों द्वारा कायम है जिन्होंने उनके तत्त्वज्ञान में जीव-ईश्वर-परमेश्वर का साक्षात्कार किया है इस पूरे भूमंडल पर संत ज्ञानेश्वर के शिष्य ही जीव-ईश्वर-परमेश्वर का पृथक – पृथक अस्तित्व को जाने देखें है | यदि और कोई धरती पर दावा प्रस्तुत कर रहा है तो उसको गलत प्रमाणित करने कि खुली चुनौती दे रहे है|

प्रिय भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! वास्तव में आप गुरु के पास इसलिए नहीं जाते हैं कि आपको गुरु चाहिए, आप गुरु के पास इसलिए जाते हैं क्योंकि आपको भगवान चाहिए। अर्थात् गुरु, गुरु के लिए नहीं किया जाता बल्कि भगवद् प्राप्ति के लिए किया जाता है। आपकी तलाश तो वह परमसत्य परमात्मा है न कि गुरु, क्योंकि यदि आपको परमात्मा की तलाश नहीं होती तो फिर आप गुरु के पास किसलिए जाते? फिर क्या जरूरत है गुरु की? लेकिन अफसोस कि गए तो थे परमात्मा को पाने लेकिन परमात्मा तो मिला नहीं और चिपक गए गुरु जी में ! किसी भी व्यक्ति को गुरु भक्ति में ऐसा नहीं चिपक जाना चाहिए कि ज्ञान और भगवान् रूप परमसत्य विधान से ही वह वंचित हो रह जाए । गुरु भक्ति बहुत ऊँची चीज है मगर सच्चा गुरु जो साक्षात् भगवान् को मिला जना दे वास्तव में वही गुरु सच्चा है और वही साक्षात् भगवदावतार सद्गुरु भी है उसकी भक्ति-सेवा ही इस जीवन का मंजिल भी है । अन्यथा उस गुरु से कोई प्रयोजन ही नहीं होना चाहिए जिस गुरु के ज्ञान में जीवन का मंजिल मोक्ष की प्राप्ति न हो । सब भगवद् कृपा