“जय प्रभु सदानन्द जी”
“भगवद् कृपा हि केवलम्”

दिव्य-ज्योति रूप शिव ही परमात्मा नहीं, अध्यात्म ही तत्त्वज्ञान नहीं
(देखें सद्ग्रंथीय प्रमाण)

सत्यान्वेषी बन्धुओं! आज दुनिया भर में समस्त धर्मगुरु अपने शिष्यों को यही बताने में लगे हुये हैं कि आत्मा ही परमात्मा है, ब्रह्म ही परमब्रह्म है, ईश्वर ही परमेश्वर है। ये गुरुजन अपने शिष्यों को अध्यात्म की चार क्रियाओं (१. सोsहं या अजपा जाप, २. ध्यान-मुद्रा या ज्योति दर्शन, ३. अनहद नाद, ४. अमृत पान या खेचरी मुद्रा) की जानकारी देकर कह देते हैं कि यही तत्त्वज्ञान है। इन चार क्रियाओं को कोई अध्यात्मज्ञान कह कर दे रहा है, कोई आत्मज्ञान कह कर दे रहा है तो कोई ब्रह्मज्ञान कह कर देने में लगा हुआ है। फिर इसे ही तत्त्वज्ञान कह कर स्वयं को सद्गुरु या भगवदावतारी घोषित करने में लगे हुये हैं। जबकि ये गुरु जी लोग अपने शिष्यों को यह भी बताते हैं कि पूरी धरती पर ऐसा ज्ञान देने वाला सच्चा सद्गुरु एक समय में केवल एक ही होता है लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि न तो स्वयं ये गुरुजन और न इनके शिष्यगण ही इस बात पर कभी भी विचार करते हैं कि यदि वास्तव में ऐसा ही है तो फिर आज धरती पर एक साथ इतनी अधिक संख्या में यही ज्ञान देने वाले सद्गुरु कैसे हो गए ? इसका अर्थ है कि यह अध्यात्म-योग-साधना वाला ज्ञान वह ज्ञान नहीं है जो पूरी धरती पर केवल एक ही गुरु के पास होता है। प्राचीन काल से ही प्रत्येक युग में योग-साधना वाले आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि आदि इस धरती पर अनेकों की संख्या में रहे हैं और अपने शिष्यों को इसकी जानकारी देते रहे हैं, आज भी ऐसा ही हो रहा है। लेकिन सृष्टि के आदि से लेकर आज तक क्या किसी भी योग-साधना वाले आध्यात्मिक ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि के पास वह ‘ज्ञान’ रहा है जो एक समय में केवल ‘एक’ ही के पास होता है ? क्या किसी भी योग-साधना वाले ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि को परमात्मा का पूर्णावतार कहा गया है ? नहीं। कदापि नहीं।
आखिर वह कौन सा ‘ज्ञान’ है जो पूरी धरती पर केवल ‘एक’ ही के पास होता है ?
वह कौन सा ‘ज्ञान’ है जिसको देने वाला सद्गुरु या भगवान का पूर्णावतार कहलाता है ?
वह कौन सा ‘ज्ञान’ है जो पूरे सतयुग में एकमात्र केवल श्री विष्णु जी महाराज के पास था तथा जिसके कारण वे परमात्मा के सतयुगीन एकमेव एक पूर्णावतार कहलाए ?
वह कौन सा ‘ज्ञान’ है जो पूरे त्रेतायुग में एकमात्र केवल श्री रामचन्द्र जी महाराज के पास था तथा जिसके कारण वे परमात्मा के त्रेतायुगीन एकमेव एक पूर्णावतार कहलाए ?
वह कौन सा ‘ज्ञान’ है जो पूरे द्वापरयुग में एकमात्र केवल श्री कृष्ण जी महाराज के पास था तथा जिसके कारण वे परमात्मा के द्वापरयुगीन एकमेव एक पूर्णावतार कहलाए ?
जो ज्ञान श्री विष्णु जी, श्री राम जी और श्री कृष्ण जी के पास था, क्या वह ज्ञान उस युग में किसी अन्य योग-साधना वाले आध्यात्मिक गुरु, ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि के पास था ?
क्या श्रीविष्णु जी, श्री राम जी और श्री कृष्ण जी ने अपने भक्तों को मात्र अध्यात्म की चार क्रियाओं वाला ही ज्ञान दिया था ? नहीं। कदापि नहीं।

भगवद् प्रेमी बन्धुओं! वह ज्ञान तो ‘तत्त्वज्ञान’ है जिसमें जीव, आत्मा तथा परमात्मा तीनों का पृथक-पृथक साक्षात् दर्शन तथा बात-चीत सहित परिचय पहचान और जीते जी मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध होता है। इसी ‘तत्त्वज्ञान’ को प्रदान करने वाले सद्गुरु को कहते हैं परमात्मा का पूर्णावतार।
योग-साधना वाले अध्यात्म मे तो केवल आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव ज्योति-दिव्य ज्योति की प्राप्ति होती है न की परमात्मा की। ध्यान-साधना-अध्यात्म के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है। ध्यान-साधना की जानकारी देने वाले गुरु को आध्यात्मिक गुरु कहते हैं न कि सद्गुरु या पूर्णावतार।
परन्तु भगवान बनने की महत्वाकांक्षा के कारण ये आध्यात्मिक गुरु बड़ी ही चतुराई से आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर तथा ब्रह्म को ही परमब्रह्म घोषित करके, अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कह कर और स्वयं को भगवान का अवतार बताकर धर्म-प्रेमी जनता को अपने जाल में फंसा लेते हैं। इस प्रकार ये अपने शिष्य को भ्रमित करके भगवान से दूर कर देते हैं क्योंकि अब वह व्यक्ति परमात्मा की खोज बन्द कर देता है और अपने गुरु को ही परमात्मा मान लेता है। जबकि उसे अभी परमात्मा नहीं मिला है और मानव जीवन का लक्ष्य परमात्मा है न कि आत्मा।
बन्धुओं ! आइये अब देखते हैं सद्ग्रंथों मे दिये गए प्रमाणों को जिससे यह प्रमाणित होता है कि आत्मा ही परमात्मा नहीं है, ब्रह्म ही परमब्रह्म नहीं है, ईश्वर ही परमेश्वर नहीं है-

इन्द्र्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: ।
मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ।।
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गति: ।।

(कठोपनिषद् १/३/१०-११)

अर्थ-- इन्द्रियों से श्रेष्ठ शब्दादि विषय हैं, विषयों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुध्दि और बुध्दि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ और बलवान महान् आत्मा है । उस आत्मा से भी बलवती भगवान की मायाशक्ति; आदिशक्ति है और उस माया शक्ति से भी श्रेष्ठ व परे वह परमप्रभु परमेश्वर है जिससे श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी और कोई भी नहीं है, वही सबका परम अवधि और वही परम गति है ।

तमीश्वराणाम् परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद ६/७)

व्याख्या- वे परमब्रह्म पुरुषोत्तम समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप महान शासक हैं, अर्थात् ये सब भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति हैं तथा समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण हैं और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक हैं।

द्वे अक्षरे ब्रम्हपरे त्वनन्ते
विद्याविद्ये निहिते यत्रा गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्ययमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ।

(श्वेताश्वतरोपनिषद् ५/१)

व्याख्या- परमेश्वर, ब्रम्ह से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है। अपनी माया के पर्दे में छिपा हुआ है, जो सीमा रहित और अविनाशी है अर्थात् जो देश-काल से सर्वथा अतीत है तथा जिनका कभी किसी प्रकार से विनाश नहीं हो सकता तथा जिन परमात्मा में अविद्या और विद्या --दोनों विद्यमान रहते हैं, वे ही पूर्णब्रम्ह पुरुषोत्तम हैं । इस मन्त्र में परिवर्तनशील घटने-बढ़ने वाले और उत्पत्ति विनाशशील-क्षरतत्त्व को तो अविद्या नाम से कहा गया है, क्योंकि वह जड़ है, उसमें विद्या का सर्वथा अभाव है । उससे भिन्न जो अविनाशी कूटस्थ जीवात्मा है, उसको विद्या के नाम से कहा गया है, क्योंकि वह चेतन है, विज्ञानमय है। उपनिषदों में जगह-जगह उसका विज्ञानात्मा के नाम से भी वर्णन आया है । यहाँ श्रुति में स्वयं ही विद्या और अविद्या की परिभाषा कर दी गयी है। अर्थान्तर की कल्पना अनावश्यक है । जो इस अविद्या नाम से कहे जाने वाले क्षर और विद्या नाम से कहे जाने वाले अक्षर-- दोनों पर शासन करते हैं, दोनों के स्वामी हैं, दोनों जिनकी प्रकृतियाँ अथवा शक्तियाँ हैं, वे परमेश्वर इन दोनों से अन्य ---सर्वथा विलक्षण और श्रेष्ठ हैं ।

दिव्य-प्रकाश रूप आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को ही परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म कहने वाले बन्धुजन निम्नलिखित प्रमाण भी देखें –

यदातमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासंछिव एव केवलः।
तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद ४/१८)

व्याख्या- जिस समय अज्ञान रूप अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है, उस समय प्रत्यक्ष होने वाला ‘तत्त्व’ न दिन है, न रात है अर्थात् उसे न तो दिन की भाँति प्रकाशमय कहा जा सकता है और न रात की भाँति अन्धकारमय ही, क्योंकि वह इन दोनों से सर्वथा विलक्षण है। वहाँ ज्ञान-अज्ञान के भेद की कल्पना के लिए स्थान नहीं है। वह न तो सत् है और न असत् हैं- उसे न तो सत् कहना बनता है न असत् ही, क्योंकि वह सत् और असत् नाम से समझे जाने वाले पदार्थों से सर्वथा विलक्षण है। एकमात्र कल्याण रूप ही वह ‘तत्त्व’ है। वे सर्वथा अविनाशी हैं। सूर्य आदि समस्त देवताओं के उपास्य देव हैं। उन्ही से यह सदा से चला आता हुआ अनादि ज्ञान विस्तारित हुआ है अर्थात् परमात्मा को जानने और पाने का विधान अधिकारियों को ‘तत्त्ववेत्ताओं’ से प्राप्त होता हुआ चला आ रहा है।

उपरोक्त मंत्रों से यह विदित है कि ‘तत्त्व’ रूप परमात्मा विलक्षण होते हुये न तो प्रकाश जैसा है, न प्रकाश ही है और न अन्धकार जैसा ही है तथा न अन्धकार ही है अपितु अन्धकार-प्रकाश अथवा असत्-सत् दोनों से विलक्षण और भिन्न है।

जो लोग यीशु के डिवाइन लाईट को गॉड कहते हैं वे बन्धुजन बाइबिल के इस प्रमाण को देखें –
आदि में 'शब्द' था । 'शब्द' परमेश्वर के साथ था । 'शब्द' ही परमेश्वर था । 'शब्द' देहधारी होकर हम लोगों के बीच डेरा किया --बाइबल से ।

अब देखिए परमात्मा के सम्बन्ध में श्रीमदभगवद् महापुराण का यह श्लोक –

तमहमजमनन्तमात्मत्त्वं जगदुदयस्थिति संयमात्मशक्तिम्।
धुपतिभिरजशक्रशंकराधैर्दुरवसितस्तवमच्युतं नतोsस्मि ॥

(भा॰ म॰ पु॰ १२/१२/६६)

“वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देशकालादिकृत परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्वम ही हैं। जगत की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्ही एकरस सच्चिदानंदघन रूप परमात्मा-परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ”।

अब जरा सोचिए कि क्या ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि लोकपाल को अध्यात्म की उन चार क्रियाओं की जानकारी नहीं है ? क्या शंकर जी से बड़ा अध्यात्म का जानकार कोई अन्य है इस ब्रह्माण्ड में ? जब शंकर जी भी उस परमात्मा के बारे में नहीं जानते हैं तो फिर और कौन है जो ध्यान-साधना करके परमात्मा को प्राप्त कर लेगा?

न मे विदुः सुरगणा: प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

(श्रीमद् भगवद् गीता १०/२)

“हे अर्जुन! मुझे न तो देवता लोग जानते हैं और न तो मेरी उत्पत्ति और प्रभाव को महर्षिगण ही जानते हैं क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ”।

सिर्फ इतना ही नहीं आगे भी देखिए -

जग पेखन तुम देखनि हारे, विधि हरि शम्भु नचावनि हारे।
तेऊ न जानहिं मरम तुम्हारा, और तुम्हहिं को जाननि हारा।।

(श्री रामचरित मानस से)

यह देखिए धरती पर रावण के बड़े हुये अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए इन्द्र, ब्रह्मा और शंकर सहित ऋषि-महर्षि और देवी-देवताओं द्वारा किस ‘परमप्रभु’ का पुकार किया जा रहा है :–

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कन्ता ॥

.......................

जेहि सृष्टि उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा ।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥

.......................

भव बारिधि मंदर सब विधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपूंजा ।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

भयभीत हुये मुनि-सिद्ध सहित देवताओं के उपर्युक्त स्तुति-प्रार्थना पर आकाशवाणी के माध्यम से आश्वासन कौन दे रहा है –

जानि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धारिहउं नर वेषा ॥
असन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहऊँ दिनकर बंस उदारा ॥

पाठक बन्धु ! जरा सोचिए, क्या यह मान लिया जाय कि नारद, ब्रह्मा, इन्द्र और शंकर आदि में सोsहँ नहीं था अथवा वे लोग सोsहँ-हँसो को जानते नहीं थे ? ऐसा सम्भव नहीं कदापि सम्भव नहीं। फिर ये लोग पुकार किसका कर रहे थे ? आकाशवाणी द्वारा आश्वासन क्या सोsहँ-हँसो ने दिया था ? नहीं कदापि नहीं । सोsहँ-हँसो ज्योति धरती पर सदा ही जीवित प्राणीयों के साथ रहता है। जो सदा हि रहता हो, उसका अवतार कैसा ? अवतार अर्थात् अपने निवास स्थान रूप परमआकाश से उतरकर इस धरती रूप धराधाम पर आना तो उन्ही का होगा—अवतरित होना तो केवल उन्ही पर लागू होगा जो इस धरती पर मौजूद न हो ।

अब देखिए कि ये आध्यात्मिक गुरुजन कितनी चतुराई से गीता अध्याय ४ का श्लोक १. अपने शिष्यों को दिखाकर कहते हैं कि देखो यही ज्ञान तो मैं तुम्हें दे रहा हूँ -

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेsब्रवीत् ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता ४/१)

श्रीभगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।

उपरोक्त श्लोक को दिखाकर, योग की जानकारी और इसे ही तत्त्वज्ञान बताकर ये गुरु जी लोग अपने शिष्य को भ्रमित कर देते हैं ।

जबकि गीता के इसी अध्याय ४ में आगे देखिए -

स एवायं मया तेsद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोsसि मे सखा चेति रहस्यं ह्रोतदुत्तमम् ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता ४/३)

अर्थात् तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।

बन्धुओं ! अध्याय ४ के श्लोक ३ से यह स्पष्ट होता है कि योग से सम्बंधित जानकारी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को यहाँ दे दी है। लेकिन साथ ही इसी अध्याय में आगे यह भी बता दिया की यह योग ही तत्त्वज्ञान नहीं है, तत्त्वज्ञान की जानकारी लेना तो अभी बाकी है। यह देखिए –

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता ४/३४)

“उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोडकर सरलतापूर्वकप्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भली भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे”

बन्धुओं अगर योग ही तत्त्वज्ञान है तो योग की जानकारी तो भगवान ने अर्जुन को अध्याय ४ के प्रारम्भ में ही दे दी, फिर अब बाद में अर्जुन को कौन सा तत्त्वज्ञान लेने के लिए कह रहे हैं ?

भगवान ने तो कर्म, योग और तत्त्वज्ञान तीनों की जानकारी अर्जुन को दी थी, तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि कर्म या फिर योग को ही तत्त्वज्ञान कह दिया जाय ।
सिर्फ इतना ही नहीं आगे भी देखिए -

अध्यात्म और तत्त्वज्ञान को पृथक-पृथक वर्णन करते हुये श्रीकृष्ण जी महाराज ने कहा –

अध्यात्मज्ञान नित्यत्त्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् ।।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोंsन्यथा ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता १३/११)

भावार्थ— अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को देखना, यह सब तो ज्ञान है और इससे अन्यथा जो कुछ (अलग) है, वह सब अज्ञान है – ऐसे कहा गया है।

आइए अब देखते हैं कि क्या ध्यान-साधना रूप अध्यात्म के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है ?

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विद्यो द्रष्टुम् दृष्टवानसि मां यथा॥

(श्रीमद्भगवद्गीता ११/५३)

“हे अर्जुन! न वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से, न योग और न मुद्रा आदि क्रियाओं से ही इस प्रकार तत्त्व रूप ‘मैं’ देखा जा सकता हूँ, जैसा मेरे को तुमने देखा है”।

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जपहोमार्चनादिकम् ।
वेद शास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति ॥

(गरुण पुराण १६/९८)

तभी तक ही तप, व्रत, तीर्थटन, जप, होम और देव पूजा आदि है तथा तभी तक ही वेद, शास्त्र और आगमों की कथा है, जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं है”

भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान-साधना रूप अध्यात्म के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है। अध्यात्म और तत्त्वज्ञान दोनों अलग-अलग विधान हैं तथा परमात्मा की प्राप्ति एक मात्र ‘तत्त्वज्ञान’ से होती है ।
सब भगवद् कृपा